
नालंदा। नव नालंदा महाविहार, नालंदा के माननीय कुलपति प्रोफेसर सिद्धार्थ सिंह ने आज भारत के ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाएं विषयक द्वि दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह में अपने अध्यक्ष उद्बोधन में कहा कि भारतीय दर्शन, शास्त्र, लोक परंपराएं, संगीत, रंगमंच, शिल्प और आदिवासी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ – ये सभी मिलकर उस व्यापक “भारतीय ज्ञान परंपरा” को परिभाषित करते हैं, जिसे एक स्वतंत्र, समग्र और संरचित अनुशासन के रूप में स्थापित करना समय की आवश्यकता है।
व्याख्यान में उन्होंने बताया कि किसी भी प्रकार के विवाद और संघर्ष को समझने के लिए कॉनफ्लिक्ट मैपिंग की पद्धति अत्यंत उपयोगी है, जिसमें “ट्रैक्टेबल” और “इंट्रैक्टेबल” जैसे विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया। उदाहरण के रूप में उन्होंने इस्राइल-फिलिस्तीन विवाद का हवाला दिया जो ऐतिहासिक, धार्मिक और भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत जटिल है।
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के ‘एजेंडा फॉर पीस’ में वर्णित तीन प्रमुख अवधारणाओं – पीसमेकिंग, पीसकीपिंग और पीसबिल्डिंग – का उल्लेख करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए संवाद और समावेश की परंपरा रही है।
अपने उद्बोधन में कुलपति महोदय ने “अंधों और हाथी” की प्रसिद्ध कथा का उल्लेख करते हुए बताया कि कैसे विभिन्न दार्शनिक परंपराएँ एक ही सत्य के अंश को अपनी दृष्टि से देखती हैं। उन्होंने बौद्ध, जैन और सूफ़ी परंपराओं में इस दृष्टांत के विभिन्न संस्करणों का हवाला देते हुए कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा ने कभी एकमात्र सत्य के आग्रह पर बल नहीं दिया, बल्कि “अनेकांतवाद” और “स्यादवाद” जैसी अवधारणाओं के माध्यम से बहुलता को स्वीकार किया है।
कुलपति महोदय ने कहा कि भारतीय संस्कृति की छाप विश्व के कोने-कोने में देखी जा सकती है – चाहे वह जापान में हिन्दू देवी- देवताओं की उपस्थिति हो, अज़रबैजान की राजधानी बाकू का प्राचीन हिंदू मंदिर हो या हंगरी के प्राचीन शहरों में बौद्ध प्रभाव के दावे। उन्होंने यह भी बताया कि भारतीय शब्द और ध्वनियाँ जर्मन और जापानी भाषाओं तक में परिलक्षित होती हैं।
अपने समापन भाषण में उन्होंने आह्वान किया कि केवल सांस्कृतिक गौरवगान से आगे बढ़कर अब आवश्यकता है कि इस समृद्ध ज्ञान परंपरा को अकादमिक और वैश्विक स्तर पर एक संगठित अनुशासन के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जाए।